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Wednesday 23 April 2014

उत्तराखण्ड में पत्रकारिता का इतिहास

त्तराखण्ड में पत्रकारिता का गौरवपूर्ण अतीत रहा है। आर्थिक रूप से पिछड़ा होने के बावजूद उत्तराखण्ड में बौद्धिक सम्पदा का खजाना हमेशा लबालव रहा। देश में पत्रकारिता का बीज जैसे ही अंकुरित होना शुरू हुआ, उत्तराखण्ड में भी उसका जन्म और विकास शुरू हो गया। बीसवीं सदी के आरम्भ से ही उत्तराखण्ड के अखबारों में सुधारों की छटपटाहट, विचारों की स्पष्टता और आजादी की अकुलाहट दृष्टिगोचर होने लगी थी। राष्ट्रीय आन्दोलन के उभार के साथ-साथ स्थानीय पत्रकारिता में अधिक आक्रामकता, अधिक आक्रोश और ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने की प्रबल इच्छा साफ-साफ दिखाई देने लगी थी। 

उत्तराखण्ड में पत्रकारिता के विकास की प्रक्रिया भारतीय राष्ट्रवाद के विकास की प्रक्रिया के समानान्तर रही है। जब यहॉं 1815 में गोरखों के क्रूर एवं अत्याचारी शासन का अन्त ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा हुआ तो शुरूआत में अंग्रेजों का स्वागत हुआ, क्योंकि तब जनता गोरखों के क्रूर एवं अत्याचारी शासन से त्रस्त थी। हांलाकि इस बीच भी 1815 से लेकर 1857 तक कंपनी के शासन के दौर मेें भी उत्तराखण्ड के कवियों मौलाराम (1743-1833), गुमानी (1779-1846) एवं कृष्णा पाण्डे (1800-1850) आदि की कविताओं में असन्तोष के बीज मिलते हैं। 
दिन-दिन खजाना का भार बोकना लै, शिब-शिब, चूली में ना बाल एकै कैका- गुमानी (गोरखा शासन के खिलाफ)
साथ ही उत्तराखण्ड में 1857 के स्वाधीनता संग्राम के समय तथा इससे पूर्व भी औपनिवेशिक अवमानना के प्रमाण मिलते हैं। 1857 के बाद सर हेनरी रैमजे के दौर (1856-1884) में यहां औपनिवेशिक शिक्षा का आरम्भ हुआ और जन साधारण पाश्चात्य विचारों एवं नवीनतम राजनीतिक अवधारणाओं के सम्पर्क में आया तथा उदार जागृति की आधारशिला रखने वाले तत्वों का आविर्भाव हुआ। ये तत्व थे- स्थानीय संगठन तथा स्थानीय पत्रकारिता। 

स्थानीय पत्रकारिता ने बाद के वर्षों में उत्तराखण्ड के विभिन्न स्थानीय संघर्षों का स्वाधीनता संग्राम से एकीकरण कर देश के अन्य हिस्सों के आंदोलनों एवं वहां के समाज, संस्कृति से जनता को परिचित कराने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाई। 

उत्तराखण्ड की पत्रकारिता का उद्भव एवं विकासः 

यद्यपि 1842 में एक अंग्रेज व्यवसायी और समाजसेवी जान मेकिनन ने अंग्रेजी भाषा में मसूरी से ‘‘द हिल्स’’ नामक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू कर दिया था, परन्तु 1868 में नैनीताल से प्रकाशित होने वाला ‘‘समय विनोद’’ उत्तराखण्ड से निकलने वाला पहला देशी (हिन्दी-उर्दू) पत्र था। पत्र के संपादक-स्वामी जयदत्त जोशी वकील थे। पत्र पाक्षिक था तथा नैनीताल प्रेस से छपता था। 1877 के आसपास यह समाचार पत्र बन्द हो गया। पत्र ने सरकारपरस्त होने के बावजूद ब्रिटिश राज में चोरी की घटनाएं बढ़ने, भारतीयों के शोषण, बिना वजह उन्हें पीटने, उन पर अविश्वास करने पर अपने विविध अंकों में चिंता व्यक्त की थी।  

अल्मोड़ा अखबारः
उत्तराखण्ड ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश में पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के क्षेत्र में 1871 में अल्मोड़ा से प्रकाशित ‘‘अल्मोड़ा अखबार’’ का विशिष्ट स्थान है। इसका सरकारी रजिस्ट्रेशन नंबर 10 था और यह प्रमुख अंग्रेजी पत्र ‘‘पायनियर’’ का समकालीन था। इसके 48 वर्ष के जीवनकाल में इसका संपादन क्रमशः बुद्धिबल्लभ पंत, मुंशी इम्तियाज अली, जीवानन्द जोशी, सदानन्द सनवाल, विष्णुदत्त जोशी तथा 1913 के बाद बद्रीदत्त पाण्डे ने किया। 
प्रारम्भिक चरण में ‘‘अल्मोड़ा अखबार’’ सरकारपरस्त था फिर भी इसने औपनिवेशिक शासकों का ध्यान स्थानीय समस्याओं के प्रति आकृष्ट करने में सफलता पाई। कभी पाक्षिक तो कभी साप्ताहिक रूप से निकलने वाले इस पत्र ने अंग्रेजों के अत्याचारों से त्रस्त पर्वतीय जनता की मूकवाणी को अभिव्यक्ति देने का कार्य किया। इस पत्र का मुख्य विषय आंचलिक समस्याएं कुली बेगार, जंगल बंदोबस्त, बाल शिक्षा, मद्य निषेध, स्त्री अधिकार आदि रहे। 
1913 में बद्रीदत्त पाण्डे के ‘‘अल्मोड़ा अखबार’’ के संपादक बनने के बाद इस पत्र का सिर्फ स्वरूप ही नहीं बदला वरन् इसकी प्रसार संख्या भी 50-60 से बढकर 1500 तक हो गई। बेगार, जंगलात, स्वराज, स्थानीय नौकरशाही की निरंकुशता पर भी इस पत्र में आक्रामक लेख प्रकाशित होने लगे। अन्ततः 1918 में ‘‘अल्मोड़ा अखबार’’ सरकारी दबाव के फलस्वरूप बन्द हो गया। बाद मे इसकी भरपाई 1918 में बद्रीदत्त पाण्डे के संपादकत्व में ही निकले पत्र ‘‘शक्ति’’ ने पूरी की। शक्ति पर शुरू से ही स्थानीय आक्रामकता और भारतीय राष्ट्रवाद दोनों का असाधारण असर था। 
कहते हैं कि 1930 में अंग्रेज अधिकारी लोमस द्वारा शिकार करने के दौरान मुर्गी की जगह एक कुली की मौत हो गई। अल्मोड़ा अखबार ने इस समाचार को प्रमुखता से प्रकाशित किया था। इस समाचार को प्रकाशित करने पर अल्मोड़ा अखबार को अंग्रेज सरकार द्वारा बंद करा दिया गया। इस बाबत गढ़वाल से प्रकाशित समाचार पत्र-गढ़वाली ने समाचार छापते हुए सुर्खी लगाई थी-'एक गोली के तीन शिकार-मुर्गी, कुली और अल्मोड़ा अखबार।'

वर्ष 1893-1894 में अल्मोड़ा से ‘‘कूर्मांचल समाचार’’, 1902 में लैंसडाउन से गिरिजा दत्त नैथाणी द्वारा संपादित मासिक पत्र ‘‘गढ़वाल समाचार’’ और 1905 में देहरादून से प्रकाशित ‘‘गढ़वाली’’ भी अपनी उदार और नरम नीति के बावजूद औपनिवेशिक शासन की गलत नीतियों का विरोध करते रहे थे। 

शक्ति: 
‘‘शक्ति’’ ने न सिर्फ स्थानीय समस्याओं को उठाया वरन् इन समस्याओं के खिलाफ उठे आन्दोलनों को राष्ट्रीय आन्दोलन से एकाकार करने में भी उसका महत्वपूर्ण योगदान रहा। ‘‘शक्ति’’ की लेखन शैली का अन्दाज 27 जनवरी 1919 के अंक में प्रकाशित निम्न पंक्तियों से लगाया जा सकता है:- 
‘‘आंदोलन और आलोचना का युग कभी बंद न होना चाहिए ताकि राष्ट्र हर वक्त चेतनावस्था में रहे अन्यथा जाति यदि सुप्तावस्था को प्राप्त हो जाती है तो नौकरशाही, जर्मनशाही या नादिरशाही की तूती बोलने लगती है।’’ 

शक्ति ने एक ओर बेगार, जंगलात, डोला-पालकी, नायक सुधार, अछूतोद्धार तथा गाड़ी-सड़क जैसे आन्दोलनों को इस पत्र ने मुखर अभिव्यक्ति दी तो दूसरी ओर असहयोग, स्वराज, सविनय अवज्ञा, व्यक्तिगत सत्याग्रह, भारत छोड़ो आन्दोलन जैसी अवधारणाओं को ग्रामीण जन मानस तक पहुॅचाने का प्रयास किया, साथ ही साहित्यिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों को भी मंच प्रदान किया। इसका प्रत्येक संपादक राष्ट्रीय संग्रामी था। बद्रीदत्त पाण्डे, मोहन जोशी, दुर्गादत्त पाण्डे, मनोहर पंत, राम सिंह धौनी, मथुरा दत्त त्रिवेदी, पूरन चन्द्र तिवाड़ी आदि में से एक-दो अपवादों को छोड़कर ‘‘शक्ति’’ के सभी सम्पादक या तो जेल गये थे या तत्कालीन प्रशासन की घृणा के पात्र बने। 
‘आंदोलन और आलोचना का युग कभी बंद न होना चाहिए ताकि राष्ट्र हर वक्त चेतनावस्था में रहे अन्यथा जाति यदि सुसुप्तावस्था को प्राप्त हो जाती है तो नौकरशाही, जर्मनशाही या नादिरशाही की तूती बोलने लगती है।’’ - शक्ति: 27 जनवरी 1919। 

गढ़वालीः 
उत्तराखण्ड में पत्रकारिता के विकास के क्रम में देहरादून से प्रकाशित ’’गढ़वाली’’ (1905-1952) गढ़वाल के शिक्षित वर्ग के सामूहिक प्रयासों द्वारा स्थापित एक सामाजिक संस्थान था। यह उत्तराखण्ड मंे उदार चेतना का प्रसार करने वाले तत्वों में से एक अर्थात् उदार सरकारपरस्त संगठनों के क्रम में स्थापित ‘‘गढ़वाल यूनियन’’ (स्थापित 1901) का पत्र था। इसका पहला अंक मई 1905 को निकला जो कि मासिक था तथा इसके पहले सम्पादक होने का श्रेय गिरिजा दत्त नैथानी को जाता है। 
’’गढ़वाली’’ के दूसरे सम्पादक तारादत्त गैरोला बने। यद्यपि ‘‘गढ़वाली’’ का प्रकाशन एक सामूहिक प्रयास था, परन्तु इस प्रयास को सफल बनाने में विश्वम्भर दत्त चंदोला की विशेष भूमिका थी। 1916 से 1952 तक गढ़वाली का संपादन-संचालन का सारा भार विश्वम्भर दत्त चंदोला के कंधों पर ही रहा था। 47 साल तक जिन्दा रहने वाले इस पत्र ने अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं से लेकर विविध राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विषयों पर प्रखरता के साथ लिखा तथा अनेक आन्दोलनों की पृष्ठभूमि तैयार की। देखिये ‘‘गढ़वाली’’ की लेखनी का एक अंशः- 
‘‘कुली बर्दायश की वर्तमान प्रथा गुलामी से भी बुरी है और सभ्य गवरमैण्ट के योग्य नहीं, कतिपय सरकारी कर्मचारियों की दलील है, कि यह प्राचीन प्रथा अर्थात दस्तूर है, किंतु जब यह दस्तूर बुरा है तो चाहे प्राचीन भी हो, निन्दनीय है और फौरन बन्द होना चाहिए। क्या गुलामी, सती प्रथा प्राचीन नहीं थीं।’’ 
गढ़वाली ने गढ़वाल में कन्या विक्रय के विरूद्ध आंदोलन संचालित किया, कुली बेगार, जंगलात तथा गाड़ी सड़क के प्रश्न को प्रमुखता से उठाया, टिहरी रियासत में घटित रवांई कांड (मई 1930) के समय जनपक्ष का समर्थन कर उसकी आवाज बुलंद की, जिसकी कीमत उसके सम्पादक विश्वम्भर दत्त चंदोला को जेल जाकर चुकानी पड़ी। गढ़वाल में वहां की संस्कृति एवं साहित्य का नया युग ‘‘गढ़वाली युग’’ आरम्भ करना ‘‘गढ़वाली’’ के जीवन के शानदार अध्याय हैं। 

पत्रकारिता के इसी क्रम मे पौड़ी से सदानन्द कुकरेती ने 1913 में ‘‘विशाल कीर्ति’’ का प्रकाशन किया और ‘‘गढ़वाल समाचार’’ तथा ‘‘गढ़वाली’’ के सम्पादक रहे गिरिजा दत्त नैथाणी ने लैंसडाउन से ‘‘पुरूषार्थ’’ (1918-1923) का प्रकाशन किया। इस पत्र ने भी स्थानीय समस्याओं को आक्रामकता के साथ उठाया। स्थानीय राष्ट्रीय आन्दोलन के संग्रामी तथा उत्तराखण्ड के प्रथम बैरिस्टर मुकुन्दीलाल ने जुलाई 1922 में लैंसडाउन से ‘‘तरूण कुमाऊॅ’’ (1922-1923) का प्रकाशन कर राष्ट्रीय तथा स्थानीय मुद्दों को साथ-साथ अपने पत्र में देने की कोशिश की। इसी क्रम में 1925 में अल्मोड़ा से ‘‘कुमाऊॅ कुमुद’’ का प्रकाशन हुआ। इसका सम्पादन प्रेम बल्लभ जोशी, बसन्त कुमार जोशी, देवेन्द्र प्रताप जोशी आदि ने किया। शुरू में इसकी छवि राष्ट्रवादी पत्र की अपेक्षा साहित्यिक अधिक थी। 

स्वाधीन प्रजाः 
उत्तराखण्ड की पत्रकारिता के इतिहास में अल्मोड़ा से प्रकाशित ‘‘स्वाधीन प्रजा’’ (1930-1933) का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इसके सम्पादक प्रखर राष्ट्रवादी नेता विक्टर मोहन जोशी थे। अल्पजीवी पत्र होने के बावजूद यह पत्र अत्यधिक आक्रामक सिद्ध हुआ। पत्र ने अपने पहले अंक में ही लिखा- 
‘‘भारत की स्वाधीनता भारतीय प्रजा के हाथ में हैं। जिस दिन प्रजा तड़प उठेगी, स्वाधीनता की मस्ती तुझे चढ़ जाएगी, ग्राम-ग्राम, नगर-नगर देश प्रेम के सोते उमड़ पड़ेंगे तो बिना प्रस्ताव, बिना बमबाजी या हिंसा के क्षण भर में देश स्वाधीन हो जाएगा। प्रजा के हाथ में ही स्वाधीनता की कुंजी है।’’ 

इसी क्रम में 1939 में पीताबर पाण्डे ने हल्द्वानी से ‘‘जागृत जनता’’ का प्रकाशन किया। अपने आक्रामक तेवरों के कारण 1940 में इसके सम्पादक को सजा तथा 300 रू0 जुर्माना किया गया। भक्तदर्शन तथा भैरव दत्त धूलिया द्वारा लैंसडाउन से 1939 से प्रकाशित ‘‘कर्मभूमि’’ पत्र ने ब्रिटिश गढ़वाल तथा टिहरी रियासत दोनों में राजनैतिक, सामाजिक, साहित्यिक चेतना फैलाने का कार्य किया। गढ़वाल के प्रमुख कांग्रेसी नेता भैरव दत्त धूलिया, भक्तदर्शन, कमलसिंह नेगी, कुन्दन सिंह गुसांई, श्रीदेव सुमन, ललिता प्रसाद नैथाणी, नारायण दत्त बहुगुणा इसके सम्पादक मण्डल से जुड़े थे। ‘‘कर्मभूमि’’ को समय-समय पर ब्रिटिश सरकार तथा टिहरी रियासत दोनांे के दमन का सामना करना पड़ा। 1942 में इसके संपादक भैरव दत्त धूलिया को चार वर्ष की नजरबंदी की सजा दी गयी। 

उत्तराखंड का पहला हिंदी दैनिक अखबार होने का गौरव नैनीताल से प्रकाशित ‘पर्वतीय’ को जाता है। 1953 में शुरू हुए इस समाचार पत्र के संपादक विष्णु दत्त उनियाल थे। गौरतलब है कि नैनीताल से ही 1868 में उत्तराखण्ड से निकलने वाला पहला देशी (हिन्दी-उर्दू) पत्र ‘‘समय विनोद’’ प्रकाशित हुआ था।

उत्तराखण्ड में दलित पत्रकारिताः
उत्तराखण्ड में दलित पत्रकारिता का उदय 1935 में अल्मोड़ा से प्रकाशित ‘‘समता’’ (1935 से लगातार) पत्र से हुआ। इसके संपादक हरिप्रसाद टम्टा थे। यह पत्र राष्ट्रीय आन्दोलन के युग मंे दलित जागृति का पर्याय बना। इसके संपादक सक्रिय समाज सुधारक थे। 

Wednesday 25 December 2013

भारत में हिंदी पत्रकारिता ( विस्तार से)

 हिन्दी का प्रथम पत्र ‘उदंत मार्तं
  • प्रथम चरण – सन् 1845 से 1877
  • द्वितीय चरण – सन् 1877 से 1890
  • तृतीय चरण – सन् 1890 से बाद तक
डॉ. रामरतन भटनागर ने अपने शोध प्रबंध ‘द राइज एंड ग्रोथ आफ हिंदी जर्नलिज्म’ काल विभाजन इस प्रकार किया है–
  • आरंभिक युग 1826 से 1867
  • उत्थान एवं अभिवृद्धि
    • प्रथम चरण (1867-1883) भाषा एवं स्वरूप के समेकन का युग
    • द्वितीय चरण (1883-1900) प्रेस के प्रचार का युग
  • विकास युग
    • प्रथम युग (1900-1921) आवधिक पत्रों का युग
    • द्वितीय युग (1921-1935) दैनिक प्रचार का युग
  • सामयिक पत्रकारिता – 1935-1945
उपरोक्त में से तीन युगों के आरंभिक वर्षों में तीन प्रमुख पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ, जिन्होंने युगीन पत्रकारिता के समक्ष आदर्श स्थापित किए। सन् 1867 में ‘कविवचन सुधा’, सन् 1883 में ‘हिन्दुस्तान’ तथा सन् 1900 में ‘सरस्वती’ का प्रकाशन है।
  • काशी नागरी प्रचारणी द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी साहित्य के वृहत इतिहास’ के त्रयोदय भाग के तृतीय खंड में यह काल विभाजन इस प्रकार किया गया है –
  1. प्रथम उत्थान – सन् 1826 से 1867
  2. द्वितीय उत्थान – सन् 1868 से 1920
  3. आधुनिक उत्थान – सन् 1920 के बाद
  • ‘ए हिस्ट्री आफ द प्रेस इन इंडिया’ में श्री एस नटराजन ने पत्रकारिता का अध्ययन निम्न प्रमुख बिंदुओं के आधार पर किया है –
  1. बीज वपन काल
  2. ब्रिटिश विचारधारा का प्रभाव
  3. राष्ट्रीय जागरण काल
  4. लोकतंत्र और प्रेस
  • डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र ने ‘हिंदी पत्रकारिता’ का अध्ययन करने की सुविधा की दृष्टि से यह विभाजन मोटे रूप से इस प्रकार किया है –
  1. भारतीय नवजागरण और हिंदी पत्रकारिता का उदय (सन् 1826 से 1867)
  2. राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति- दूसरे दौर की हिंदी पत्रकारिता (सन् 1867-1900)
  3. बीसवीं शताब्दी का आरंभ और हिंदी पत्रकारिता का तीसरा दौर – इस काल खण्ड का अध्ययन करते समय उन्होंने इसे तिलक युग तथा गांधी युग में भी विभक्त किया।
  • डॉ. रामचन्द्र तिवारी ने अपनी पुस्तक ‘पत्रकारिता के विविध रूप’ में विभाजन के प्रश्न पर विचार करते हुए यह विभाजन किया है –
  1. उदय काल – (सन् 1826 से 1867)
  2. भारतेंदु युग – (सन् 1867 से 1900)
  3. तिलक या द्विवेदी युग – (सन् 1900 से 1920)
  4. गांधी युग – (सन् 1920 से 1947)
  5. स्वातंत्र्योत्तर युग (सन् 1947 से अब तक)
  • डॉ. सुशील जोशी ने काल विभाजन कुछ ऐसा प्रस्तुत किया है –
  1. हिंदी पत्रकारिता का उद्भव – 1826 से 1867
  2. हिंदी पत्रकारिता का विकास – 1867 से 1900
  3. हिंदी पत्रकारिता का उत्थान – 1900 से 1947
  4. स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता – 1947 से अब तक[2]
उक्त मतों की समीक्षा करने पर स्पष्ट होता है कि हिंदी पत्रकारिता का काल विभाजन विभिन्न विद्वानों पत्रकारों ने अपनी-अपनी सुविधा से अलग-अलग ढंग से किया है। इस संबंध में सर्वसम्मत काल निर्धारण अभी नहीं किया जा सका है। किसी ने व्यक्ति विशेष के नाम से युग का नामकरण करने का प्रयास किया है तो किसी ने परिस्थिति अथवा प्रकृति के आधार पर। इनमें एकरूपता का अभाव है।

हिंदी पत्रकारिता का उद्भव काल (1826 से 1867)

कलकत्ता से 30 मई, 1826 को ‘उदन्त मार्तण्ड’ के सम्पादन से प्रारंभ हिंदी पत्रकारिता की विकास यात्रा कहीं थमी और कहीं ठहरी नहीं है। पंडित युगल किशोर शुक्ल के संपादन में प्रकाशित इस समाचार पत्र ने हालांकि आर्थिक अभावों के कारण जल्द ही दम तोड़ दिया, पर इसने हिंदी अखबारों के प्रकाशन का जो शुभारंभ किया वह कारवां निरंतर आगे बढ़ा है। साथ ही हिंदी का प्रथम पत्र होने के बावजूद यह भाषा, विचार एवं प्रस्तुति के लिहाज से महत्त्वपूर्ण बन गया।

कलकत्ता का योगदान

पत्रकारिता जगत में कलकत्ता का बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। प्रशासनिक, वाणिज्य तथा शैक्षिक दृष्टि से कलकत्ता का उन दिनों विशेष महत्व था। यहीं से 10 मई 1829 को राजा राममोहन राय ने ‘बंगदूत’ समाचार पत्र निकाला जो बंगलाफ़ारसीअंग्रेज़ी तथा हिंदी में प्रकाशित हुआ। बंगला पत्र ‘समाचार दर्पण’ के 21 जून 1834 के अंक ‘प्रजामित्र’ नामक हिंदी पत्र के कलकत्ता से प्रकाशित होने की सूचना मिलती है। लेकिन अपने शोध ग्रंथ में डॉ. रामरतन भटनागर ने उसके प्रकाशन को संदिग्ध माना है। ‘बंगदूदत’ के बंद होने के बाद 15 सालों तक हिंदी में कोई पत्र न निकला।

हिंदी पत्रकारिता का उत्थान काल (1900-1947)

सन 1900 का वर्ष हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में महत्त्वपूर्ण है। 1900 में प्रकाशित सरस्वती पत्रिका]अपने समय की युगान्तरकारी पत्रिका रही है। वह अपनी छपाई, सफाई, कागज और चित्रों के कारण शीघ्र ही लोकप्रिय हो गई। इसे बंगाली बाबू चिन्तामणि घोष ने प्रकाशित किया था तथा इसे नागरी प्रचारिणी सभा का अनुमोदन प्राप्त था। इसके सम्पादक मण्डल में बाबू राधाकृष्ण दास, बाबू कार्तिका प्रसाद खत्री, जगन्नाथदास रत्नाकर, किशोरीदास गोस्वामी तथा बाबू श्यामसुन्दरदास थे। 1903 में इसके सम्पादन का भार आचार्य महावर प्रसाद द्विवेदी पर पड़ा। इसका मुख्य उद्देश्य हिंदी-रसिकों के मनोरंजन के साथ भाषा के सरस्वती भण्डार की अंगपुष्टि, वृद्धि और पूर्ति करन था। इस प्रकार 19वी शताब्दी में हिंदी पत्रकारिता का उद्भव व विकास बड़ी ही विषम परिस्थिति में हुआ। इस समय जो भी पत्र-पत्रिकाएं निकलती उनके सामने अनेक बाधाएं आ जातीं, लेकिन इन बाधाओं से टक्कर लेती हुई हिंदी पत्रकारिता शनैः-शनैः गति पाती गई।

हिंदी पत्रकारिता का उत्कर्ष काल (1947 से प्रारंभ)

अपने क्रमिक विकास में हिंदी पत्रकारिता के उत्कर्ष का समय आज़ादी के बाद आया। 1947 में देश को आज़ादी मिली। लोगों में नई उत्सुकता का संचार हुआ। औद्योगिक विकास के साथ-साथ मुद्रण कला भी विकसित हुई। जिससे पत्रों का संगठन पक्ष सुदृढ़ हुआ। रूप-विन्यास में भी सुरूचि दिखाई देने लगी। आज़ादी के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में अपूर्व उन्नति होने पर भी यह दुख का विषय है कि आज हिंदी पत्रकारिता विकृतियों से घिरकर स्वार्थसिद्धि और प्रचार का माध्यम बनती जा रही है। परन्तु फिर भी यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि भारतीय प्रेस की प्रगति स्वतंत्रता के बाद ही हुई। यद्यपि स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता ने पर्याप्त प्रगति कर ली है किन्तु उसके उत्कर्षकारी विकास के मार्ग में आने वाली बाधाएं भी कम नहीं हैं।

प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाएँ

भारत के स्वाधीनता संघर्ष में पत्र-पत्रिकाओं की अहम भूमिका रही है। आजादी के आन्दोलन में भाग ले रहा हर आम-ओ-खास कलम की ताकत से वाकिफ था। राजा राममोहन रायमहात्मा गांधीमौलाना अबुल कलाम आज़ादबाल गंगाधर तिलकपंडित मदनमोहन मालवीयबाबा साहब अम्बेडकरयशपाल जैसे आला दर्जे के नेता सीधे-सीधे तौर पर पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े हुए थे और नियमित लिख रहे थे। जिसका असर देश के दूर-सुदूर गांवों में रहने वाले देशवासियों पर पड़ रहा था। अंग्रेजी सरकार को इस बात का अहसास पहले से ही था, लिहाजा उसने शुरू से ही प्रेस के दमन की नीति अपनाई। 30 मई 1826 को कलकत्ता से पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन में निकलने वाले ‘उदंत्त मार्तण्ड’ को हिंदी का पहला समाचार पत्र माना जाता है। अपने समय का यह ख़ास समाचार पत्र था, मगर आर्थिक परेशानियों के कारण यह जल्दी ही बंद हो गया। आगे चलकर माहौल बदला और जिस मकसद की खातिर पत्र शुरू किये गये थे, उनका विस्तार हुआ। समाचार सुधावर्षण, अभ्युदय, शंखनाद, हलधर, सत्याग्रह समाचार, युद्धवीर, क्रांतिवीर, स्वदेश, नया हिन्दुस्तान, कल्याण, हिंदी प्रदीप, ब्राह्मण,बुन्देलखण्ड केसरी, मतवाला सरस्वती, विप्लव, अलंकार, चाँद, हंस, प्रताप, सैनिक, क्रांति, बलिदान, वालिंट्यर आदि जनवादी पत्रिकाओं ने आहिस्ता-आहिस्ता लोगों में सोये हुए वतनपरस्ती के जज्बे को जगाया और क्रांति का आह्नान किया।
नतीजतन उन्हें सत्ता का कोपभाजन बनना पड़ा। दमन, नियंत्रण के दुश्चक्र से गुजरते हुए उन्हें कई प्रेस अधिनियमों का सामना करना पड़ा। ‘वर्तमान पत्र’ में पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा लिखा ‘राजनीतिक भूकम्प’ शीर्षक लेख, ‘अभ्युदय’ का भगत सिंह विशेषांक, किसान विशेषांक, ‘नया हिन्दुस्तान’ के साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और फॉसीवादी विरोधी लेख, ‘स्वदेश’ का विजय अंक, ‘चॉंद’ का अछूत अंक, फॉंसी अंक, ‘बलिदान’ का नववर्षांक, ‘क्रांति’ के 1939 के सितम्बर, अक्टूबर अंक, ‘विप्लव’ का चंद्रशेखर अंक अपने क्रांतिकारी तेवर और राजनीतिक चेतना फैलाने के इल्जाम में अंग्रेजी सरकार की टेढ़ी निगाह के शिकार हुए और उन्हें जब्ती, प्रतिबंध, जुर्माना का सामना करना पड़ा। संपादकों को कारावास भुगतना पड़ा।

गवर्नर जनरल वेलेजली

भारतीय पत्रकारिता की स्वाधीनता को बाधित करने वाला पहला प्रेस अधिनियम गवर्नर जनरल वेलेजली के शासनकाल में 1799 को ही सामने आ गया था। भारतीय पत्रकारिता के आदिजनक जॉन्स आगस्टक हिक्की के समाचार पत्र ‘हिक्की गजट’ को विद्रोह के चलते सर्वप्रथम प्रतिबंध का सामना करना पड़ा। हिक्की को एक साल की कैद और दो हजार रूपए जुर्माने की सजा हुई। कालांतर में 1857 में गैंगिंक एक्ट, 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, 1908 में न्यूज पेपर्स एक्ट (इन्साइटमेंट अफैंसेज), 1910 में इंडियन प्रेस एक्ट, 1930 में इंडियन प्रेस आर्डिनेंस, 1931 में दि इंडियन प्रेस एक्ट (इमरजेंसी पावर्स) जैसे दमनकारी क़ानून अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करने के उद्देश्य से लागू किए गये। अंग्रेजी सरकार इन काले क़ानूनों का सहारा लेकर किसी भी पत्र-पत्रिका पर चाहे जब प्रतिबंध, जुर्माना लगा देती थी। आपत्तिजनक लेख वाले पत्र-पत्रिकाओं को जब्त कर लिया जाता। लेखक, संपादकों को कारावास भुगतना पड़ता व पत्रों को दोबारा शुरू करने के लिए जमानत की भारी भरकम रकम जमा करनी पड़ती। बावजूद इसके समाचार पत्र संपादकों के तेवर उग्र से उग्रतर होते चले गए। आजादी के आन्दोलन में जो भूमिका उन्होंने खुद तय की थी, उस पर उनका भरोसा और भी ज्यादा मजबूत होता चला गया। जेल, जब्ती, जुर्माना के डर से उनके हौसले पस्त नहीं हुये।

बीसवीं सदी की शुरुआत

बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक में सत्याग्रहअसहयोग आन्दोलनसविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रचार प्रसार और उन आन्दोलनों की कामयाबी में समाचार पत्रों की अहम भूमिका रही। कई पत्रों ने स्वाधीनता आन्दोलन में प्रवक्ता का रोल निभाया। कानपुर से 1920 में प्रकाशित ‘वर्तमान’ ने असहयोग आन्दोलन को अपना व्यापक समर्थन दिया था। पंडित मदनमोहन मालवीय द्वारा शुरू किया गया साप्ताहिक पत्र ‘अभ्युदय’ उग्र विचारधारा का हामी था। अभ्युदय के भगत सिंह विशेषांक में महात्मा गांधीसरदार पटेलमदनमोहन मालवीयपंडित जवाहरलाल नेहरू के लेख प्रकाशित हुए। जिसके परिणामस्वरूप इन पत्रों को प्रतिबंध- जुर्माना का सामना करना पड़ा। गणेश शंकर विद्यार्थी का ‘प्रताप’, सज्जाद जहीर एवं शिवदान सिंह चैहान के संपादन में इलाहाबाद से निकलने वाला ‘नया हिन्दुस्तान’ राजाराम शास्त्री का ‘क्रांति’ यशपाल का ‘विप्लव’ अपने नाम के मुताबिक ही क्रांतिकारी तेवर वाले पत्र थे। इन पत्रों में क्रांतिकारी युगांतकारी लेखन ने अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ा दी थी। अपने संपादकीय, लेखों, कविताओं के जरिए इन पत्रों ने सरकार की नीतियों की लगातार भतर्सना की। ‘नया हिन्दुस्तान’ और ‘विप्लव’ के जब्तशुदा प्रतिबंधित अंकों को देखने से इनकी वैश्विक दृष्टि का पता चलता है।

‘चाँद’ का फाँसी अंक

फाँसीवाद के उदय और बढ़ते साम्राज्यवाद, पूंजीवाद पर चिंता इन पत्रों में साफ़ देखी जा सकती है। गोरखपुर से निकलने वाले साप्ताहिक पत्र ‘स्वदेश’ को जीवंतपर्यंत अपने उग्र विचारों और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण की भावना के कारण समय-समय पर अंग्रेजी सरकार की कोप दृष्टि का शिकार होना पड़ा। खासकर विशेषांक विजयांक को। आचार्य चतुरसेन शास्त्री द्वारा संपादित ‘चाँद’ के फाँसी अंक की चर्चा भी जरूरी है। काकोरी के अभियुक्तों को फांसी के लगभग एक साल बाद, इलाहाबाद से प्रकाशित चॉंद का फाँसी अंक क्रांतिकारी आन्दोलन के इतिहास की अमूल्य निधि है। यह अंक क्रांतिकारियों की गाथाओं से भरा हुआ है। सरकार ने अंक की जनता में जबर्दस्त प्रतिक्रिया और समर्थन देख इसको फौरन जब्त कर लिया और रातों-रात इसके सारे अंक गायब कर दिये। अंग्रेज हुकूमत एक तरफ क्रांतिकारी पत्र-पत्रिकाओं को जब्त करती रही, तो दूसरी तरफ इनके संपादक इन्हें बिना रुके पूरी निर्भिकता से निकालते रहे। सरकारी दमन इनके हौसलों पर जरा भी रोक नहीं लगा सका। पत्र-पत्रिकाओं के जरिए उनका यह प्रतिरोध आजादी मिलने तक जारी रहा।

19वीं शताब्दी में प्रकाशित भारतीय समाचार पत्र

समाचार पत्रसंस्थापक/सम्पादकभाषाप्रकाशन स्थानवर्ष
अमृत बाज़ार पत्रिकामोतीलाल घोषबंगलाकलकत्ता1868 ई.
अमृत बाज़ार पत्रिकामोतीलाल घोषअंग्रेज़ीकलकत्ता1878 ई.
सोम प्रकाशईश्वरचन्द्र विद्यासागरबंगलाकलकत्ता1859 ई.
बंगवासीजोगिन्दर नाथ बोसबंगलाकलकत्ता1881 ई.
संजीवनीके.के. मित्राबंगलाकलकत्ता
हिन्दूवीर राघवाचारीअंग्रेज़ीमद्रास1878 ई.
केसरीबाल गंगाधर तिलकमराठीबम्बई1881 ई.
मराठाबाल गंगाधर तिलकअंग्रेज़ी--
हिन्दूएम.जी. रानाडेअंग्रेज़ीबम्बई1881 ई.
नेटिव ओपीनियनवी.एन. मांडलिकअंग्रेज़ीबम्बई1864 ई.
बंगालीसुरेन्द्रनाथ बनर्जीअंग्रेज़ीकलकत्ता1879 ई.
भारत मित्रबालमुकुन्द गुप्तहिन्दी--
हिन्दुस्तानमदन मोहन मालवीयहिन्दी--
हिन्द-ए-स्थानरामपाल सिंहहिन्दीकालाकांकर (उत्तर प्रदेश)-
बम्बई दर्पणबाल शास्त्रीमराठीबम्बई1832 ई.
कविवचन सुधाभारतेन्दु हरिश्चन्द्रहिन्दीउत्तर प्रदेश1867 ई.
हरिश्चन्द्र मैगजीनभारतेन्दु हरिश्चन्द्रहिन्दीउत्तर प्रदेश1872 ई.
हिन्दुस्तान स्टैंडर्डसच्चिदानन्द सिन्हाअंग्रेज़ी-1899 ई.
ज्ञान प्रदायिनीनवीन चन्द्र रायहिन्दी-1866 ई.
हिन्दी प्रदीपबालकृष्ण भट्टहिन्दीउत्तर प्रदेश1877 ई.
इंडियन रिव्यूजी.ए. नटेशनअंग्रेज़ीमद्रास-
मॉडर्न रिव्यूरामानन्द चटर्जीअंग्रेज़ीकलकत्ता-
यंग इंडियामहात्मा गाँधीअंग्रेज़ीअहमदाबाद8 अक्टूबर1919 ई.
नव जीवनमहात्मा गाँधीहिन्दीगुजरातीअहमदाबाद7 अक्टूबर, 1919 ई.
हरिजनमहात्मा गाँधीहिन्दी, गुजरातीपूना11 फ़रवरी1933 ई.
इनडिपेंडेसमोतीलाल नेहरूअंग्रेज़ी-1919 ई.
आजशिवप्रसाद गुप्तहिन्दी--
हिन्दुस्तान टाइम्सके.एम.पणिक्करअंग्रेज़ीदिल्ली1920 ई.
नेशनल हेराल्डजवाहरलाल नेहरूअंग्रेज़ीदिल्लीअगस्त1938 ई.
उद्दण्ड मार्तण्डजुगल किशोरहिन्दी (प्रथम)कानपुर1826 ई.
द ट्रिब्यूनसर दयाल सिंह मजीठियाअंग्रेज़ीचण्डीगढ़1877 ई.
अल हिलालअबुल कलाम आज़ादउर्दूकलकत्ता1912 ई.
अल बिलागअबुल कलाम आज़ादउर्दूकलकत्ता1913 ई.
कामरेडमौलाना मुहम्मद अलीअंग्रेज़ी--
हमदर्दमौलाना मुहम्मद अलीउर्दू--
प्रताप पत्रगणेश शंकर विद्यार्थीहिन्दीकानपुर1910 ई.
गदरग़दर पार्टी द्वाराउर्दू/गुरुमुखीसॉन फ़्रांसिस्को1913 ई.
गदरगदर पार्टी द्वारापंजाबी-1914 ई.
हिन्दू पैट्रियाटहरिश्चन्द्र मुखर्जीअंग्रेज़ी-1855 ई.
मद्रास स्टैंडर्ड, कॉमन वील, न्यू इंडियाएनी बेसेंटअंग्रेज़ी-1914 ई.
सोशलिस्टएस.ए.डांगेअंग्रेज़ी-1922 ई.

विश्व व भारत में पत्रकारिता का इतिहास


Acta Diurna
विश्व में पत्रकारिता का आरंभ सन 131-59 ईस्वी पूर्व रोम में हुआ था। पहला दैनिक समाचार-पत्र निकालने का श्रेय जूलियस सीजर  को दिया जाता है। उनके पहले समाचार पत्र  का नाम था "Acta Diurna" (एक्टा डाइएर्ना) (दिन की घटनाएं)। इसे इसे वास्तव में यह पत्थर की या धातु की पट्टी होता था जिस पर समाचार अंकित होते थे। ये पट्टियां रोम के मुख्य स्थानों पर रखी जाती थीं, और इन में वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति, नागरिकों की सभाओं के निर्णयों और ग्लेडिएटरों की लड़ाइयों के परिणामों के बारे में सूचनाएं मिलती थीं।
मध्यकाल में यूरोप के व्यापारिक केंद्रों में 'सूचना-पत्र' निकलने लगे। उन में कारोबार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के समाचार लिखे जाते थे। लेकिन ये सारे ‘सूचना-पत्र ‘ हाथ से ही लिखे जाते थे। 1439 में योहानेस गुटेनबर्ग ने  धातु के अक्षरों से छापने की मशीन का आविष्कार किया।  उन्होंने 1450 के आस पास प्रथम मुद्रित पुस्तक ‘कांस्टेंन मिसल’ तथा एक बाइबिल भी छापी, जो 'गुटेनबर्ग बाइबल' के नाम से प्रसिद्ध है। इस के फलस्वरूप किताबों का ही नहीं, अखबारों का भी प्रकाशन संभव हो गया।
16वीं शताब्दी के अंत में, यूरोप के शहर स्त्रास्बुर्ग में, योहन कारोलूस नाम का कारोबारी धनवान ग्राहकों के लिये सूचना-पत्र लिखवा कर प्रकाशित करता था। लेकिन हाथ से बहुत सी प्रतियों की नकल करने का काम महंगा भी था और धीमा भी। तब वह छापे की मशीन ख़रीद कर 1605 में समाचार-पत्र छापने लगा। समाचार-पत्र का नाम था ‘रिलेशन’। यह विश्व का प्रथम मुद्रित समाचार-पत्र माना जाता है।

भारत में पत्रकारिता का आरंभ:

भारत में समाचार पत्रों का इतिहास यूरोपीय लोगों के भारत में प्रवेश के साथ ही प्रारम्भ होता है। सर्वप्रथम भारत में प्रिंटिग प्रेस लाने का श्रेय पुर्तग़ालियों को दिया जाता है। 1557 ई. में गोवा के कुछ पादरी लोगों ने भारत की पहली पुस्तक छापी। छापे की पहली मशीन भारत में 1674 में पहुंचायी गयी थी। 1684 ई. में अंग्रेज़ ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भी भारत की पहली पुस्तक की छपाई की थी। 1684 ई. में ही कम्पनी ने भारत में प्रथम प्रिंटिग प्रेस (मुद्रणालय) की स्थापना की। मगर भारत का पहला अख़बार इस के 100 साल बाद, 1776 (कहीं 1766 भी लिखा गया है) में प्रकाशित हुआ। इस का प्रकाशक ईस्ट इंडिया कंपनी का भूतपूर्व अधिकारी विलेम बॉल्ट्स था। यह अख़बार स्वभावतः अंग्रेजी भाषा में निकलता था तथा कंपनी व सरकार के समाचार फैलाता था।
File:Hicky's Bengal Gazette.pdf
हिकी'ज बंगाल गजट
भारत का  सब से पहला अख़बार, 29 जनवरी 1780 में कलकत्ता से शुरू हुआ जेम्स ओगस्टस हीकी का अख़बार 'हिकी'ज बंगाल गजट' और 'दि आरिजिनल कैलकटा जनरल एड्वरटाइजर' था।अख़बार में दो पन्ने थे, और इस में ईस्ट इंडिया कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों की व्यक्तिगत जीवन पर लेख छपते थे। जब हीकी ने अपने अख़बार में गवर्नर की पत्नी का आक्षेप किया तो उसे 4 महीने के लिये जेल भेजा गया और 500 रुपये का जुरमाना लगा दिया गया। लेकिन हीकी ने शासकों की आलोचना करने से परहेज नहीं किया। और जब उस ने गवर्नर और सर्वोच्च न्यायाधीश की आलोचना की तो उस पर 5000 रुपये का जुरमाना लगाया गया और एक साल के लिये जेल में डाला गया। इस तरह उस का अख़बार भी बंद हो गया।



इस दौरान कुछ अन्य अंग्रेज़ी अख़बारों का प्रकाशन भी हुआ, जैसे- बंगाल में 'कलकत्ता कैरियर', 'एशियाटिक मिरर', 'ओरियंटल स्टार'; मद्रास में 'मद्रास कैरियर', 'मद्रास गजट'; बम्बई में 'हेराल्ड', 'बांबे गजट' आदि। 1818 ई. में ब्रिटिश व्यापारी 'जेम्स सिल्क बर्किघम' ने 'कलकत्ता जनरल' का सम्पादन किया। बर्किघम ही वह पहला प्रकाशक था, जिसने प्रेस को जनता के प्रतिबिम्ब के स्वरूप में प्रस्तुत किया। प्रेस का आधुनिक रूप जेम्स सिल्क बर्किघम का ही दिया हुआ है। हिक्की तथा बर्किघम का पत्रकारिता के इतिहास में महत्पूर्ण स्थान है। 1790 के बाद भारत में अंग्रेजी भाषा की और कुछ अख़बार स्थापित हुए जो अधिकतर शासन के मुखपत्र थे। पर भारत में प्रकाशित होनेवाले समाचार-पत्र थोड़े-थोड़े दिनों तक ही जीवित रह सके।
1816 में पहला भारतीय अंग्रेज़ी समाचार पत्र कलकत्ता में गंगाधर भट्टाचार्य द्वारा 'बंगाल गजट' नाम से निकाला गया। यह साप्ताहिक समाचार पत्र था। 
1818 ई. में मार्शमैन के नेतृत्व में बंगाली भाषा में पहला मासिक पत्र  'दिग्दर्शन' का प्रकाशन किया गया। जो भारतीय भाषा में पहला समाचार-पत्र भी था। 
राजा राममोहन राय ने भारतीय भाषा (बंगाली) में पहले साप्ताहिक समाचार-पत्र  ‘संवाद कौमुदी’ (बुद्धि का चांद) का 1819 में, 'समाचार चंद्रिका' का मार्च 1822 में और अप्रैल 1822 में फ़ारसी भाषा में 'मिरातुल' अख़बार' एवं अंग्रेज़ी भाषा में 'ब्राह्मनिकल मैगजीन' का प्रकाशन किया। 
1822 में गुजराती भाषा का साप्ताहिक ‘मुंबईना समाचार’ प्रकाशित होने लगा, जो दस वर्ष बाद दैनिक हो गया और गुजराती के प्रमुख दैनिक के रूप में आज तक विद्यमान है। भारतीय भाषा का यह सब से पुराना समाचार-पत्र है।
udant martand
उदंत मार्तंड
1826 में कानपुर निवासी पंडित युगल किशोर शुक्ल ने कलकत्ता से ‘उदंत मार्तंड’ नाम से हिंदी के प्रथम समाचार-पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया। यह साप्ताहिक पत्र 1827 तक चला और पैसे की कमी के कारण बंद हो गया। इसके अंतिम अंक में लिखा है- उदन्त मार्तण्ड की यात्रा- मिति पौष बदी १ भौम संवत् १८८४ तारीख दिसम्बर सन् १८२७ ।
आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त
अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अन्त ।
गिल क्राइस्ट नाम ने अंग्रेज की भी कलकत्ता में हिंदी का श्रीगणेश करने वाले विद्वानों में गिनती की जाती हैं। 
1830 में राजा राममोहन राय ने द्वारकानाथ टैगोर एवं प्रसन्न कुमार टैगोर के साथ बड़ा हिंदी साप्ताहिक ‘बंगदूत’ का कोलकाता से प्रकाशन शुरू किया। वैसे यह बहुभाषीय पत्र था, जो अंग्रेजी, बंगला, हिंदी और फारसी में निकलता था। बम्बई से 1831 ई. में गुजराती भाषा में 'जामे जमशेद' तथा 1851 ई. में 'रास्त गोफ़्तार' एवं 'अख़बारे सौदागार' का प्रकाशन हुआ।
1833 में भारत में 20 समाचार-पत्र थे, 1850 में 28 हो गए, और 1953 में 35 हो गये। इस तरह अख़बारों की संख्या तो बढ़ी, पर नाममात्र को ही बढ़ी। बहुत से पत्र जल्द ही बंद हो गये। उन की जगह नये निकले। प्रायः समाचार-पत्र कई महीनों से ले कर दो-तीन साल तक जीवित रहे।
उस समय भारतीय समाचार-पत्रों की समस्याएं समान थीं। वे नया ज्ञान अपने पाठकों को देना चाहते थे और उसके साथ समाज-सुधार की भावना भी थी। सामाजिक सुधारों को लेकर नये और पुराने विचारवालों में अंतर भी होते थे। इस के कारण नये-नये पत्र निकले। उन के सामने यह समस्या भी थी कि अपने पाठकों को किस भाषा में समाचार और विचार दें। समस्या थी-भाषा शुद्ध हो या सब के लिये सुलभ हो? 1846 में राजा शिव प्रसाद ने हिंदी पत्र ‘बनारस अख़बार’ का प्रकाशन शुरू किया। राजा शिव प्रसाद शुद्ध हिंदी का प्रचार करते थे और अपने पत्र के पृष्ठों पर उन लोगों की कड़ी आलोचना की जो बोल-चाल की हिंदुस्तानी के पक्ष में थे। लेकिन उसी समय के हिंदी लखक भारतेंदु हरिशचंद्र ने ऐसी रचनाएं रचीं जिन की भाषा समृद्ध भी थी और सरल भी। इस तरह उन्होंने आधुनिक हिंदी की नींव रखी है और हिंदी के भविष्य के बारे में हो रहे विवाद को समाप्त कर दिया। 1868 में भरतेंदु हरिशचंद्र ने साहित्यिक पत्रिका ‘कविवच सुधा’ निकालना प्रारंभ किया। 1854 में हिंदी का पहला दैनिक समाचार पत्र 'सुधा वर्षण’ निकला।१८६८ में देश का पहला सांध्य समाचार पत्र 'मद्रास मेल' शुरू हुआ। 
अंग्रेज़ों द्वारा सम्पादित समाचार पत्र
समाचार पत्रस्थानवर्ष
टाइम्स ऑफ़ इंडियाबम्बई1861 ई.
स्टेट्समैनकलकत्ता1878 ई.
इंग्लिश मैनकलकत्ता-
फ़्रेण्ड ऑफ़ इंडियाकलकत्ता-
मद्रास मेलमद्रास1868 ई.
पायनियरइलाहाबाद1876 ई.
सिविल एण्ड मिलिटरी गजटलाहौर-

प्रतिबन्ध

समाचार पत्र पर लगने वाले प्रतिबंध के अंतर्गत 1799 में लॉर्ड वेलेज़ली द्वारा पत्रों का 'पत्रेक्षण अधिनियम' और जॉन एडम्स द्वारा 1823 ई. में 'अनुज्ञप्ति नियम' लागू किये गये। इनके कारण राजा राममोहन राय का मिरातुल अख़बार बन्द हो गया।लॉर्ड विलियम बैंटिक प्रथम गवर्नर-जनरल था, जिसने प्रेस की स्वतंत्रता के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया। कार्यवाहक गर्वनर-जनरल चार्ल्स मेटकॉफ़ ने 1823 के प्रतिबन्ध को हटाकर समाचार पत्रों को मुक्ति दिलवाई। यही कारण है कि उसे 'समाचार पत्रों का मुक्तिदाता' भी कहा जाता है। लॉर्ड मैकाले ने भी प्रेस की स्वतंत्रता का समर्थन किया। 1857-1858 के विद्रोह के बाद भारत में समाचार पत्रों को भाषाई आधार के बजाय प्रजातीय आधार पर विभाजित किया गया। अंग्रेज़ी समाचार पत्रों एवं भारतीय समाचार पत्रों के दृष्टिकोण में अंतर होता था। जहाँ अंग्रेज़ी समाचार पत्रों को भारतीय समाचार पत्रों की अपेक्षा ढेर सारी सुविधाये उपलब्ध थीं, वही भारतीय समाचार पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा था। 

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजी और भाषाई पत्रकारिता की भूमिका

जेम्स अगस्टन हिक्की ने 29 जनवरी 1780 में पहला भारतीय समाचार पत्र बंगाल गजट कलकत्ता से अंग्रजी में निकाला। इसका आदर्श वाक्य था - सभी के लिये खुला फिर भी किसी से प्रभावित नहीं ।
अपने निर्भीक आचरण और विवेक पर अड़े रहने के कारण हिक्की को इस्ट इंडिया कंपनी का कोपभाजन बनना पड़ा। हेस्टिंगस सरकार की शासन शैली की कटू आलोचना का पुरस्कार हिक्की को जेल यातना के रूप में मिली। हिक्की ने अपना उद्देश्य ही घोषित किया था - अपने मन और आत्मा की स्वतंत्रता के लिये अपने शरीर को बंधन में डालने में मुझे मजा आता है। समाचार पत्र की शुरूआत विद्रोह की घोषणा से हुई।
हिक्की भारत के प्रथम पत्रकार थे जिन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता के लिये ब्रिटिश सरकार से संघर्ष किया।
उत्तरी अमेरिका निवासी विलियम हुआनी ने हिक्की की परंपरा को समृद्ध किया। 1765 में प्रकाशित बंगाल जनरल जो सरकार समर्थक था 1791 में हुमानी के संपादक बन जाने के बाद सरकार की आलोचना करने लगा। हुमानी की आक्रामक मुद्रा से आतंकित होकर सरकार ने उसे भारत से निष्कासित कर दिया।
जेम्स बंकिघम को प्रेस की स्वतंत्रता का प्रतीक माना जाता था। उन्होंने 2 अक्टूबर 1818 को कलकत्ता से अंग्रजी का 'कैलकटा जनरल' प्रकाशित किया। जो सरकारी नीतियों का निर्भीक आलोचक था। पंडित अंबिकाप्रशाद ने लिखा कि इस पत्र की स्वतंत्रता व उदारता पहले किसी पत्र में नही देखी गयी। कैलकटा जनरल उस समय के एंग्लोइंडियन पत्रों को प्रचार प्रसार में पीछे छोड़ दिया था। एक रूपये मूल्य के इस अखबार का दो वर्ष में सदस्य संख्या एक हजार से अधिक हो गयी थी।सन् 1823 में उन्हें देश निकाला दे दिया गया। हालांकि इंगलैंड जाकर उन्होंने आरियंटल हेराल्ड निकाला जिसमें वह भारतीय समस्याओं और कंपनी के हाथों में भारत का शासन बनाये रखने के खिलाफ लगातार अभियान चलाता रहा।
1861 के इंडियन कांउसिल एक्ट के बाद समाज के उपरी तबकों में उभरी राजनीतिक चेतना से भारतीय व गैरभारतीय दोनों भाषा के पत्रों की संख्या बढ़ी।  1861 में बंबई में टाइम्स आफ इंडिया की 1865 में इलाहाबाद में पायनियर 1868 में मद्रास मेल की 1875 में कलकत्ता स्टेटसमैन की और 1876 में लाहौर में सिविल ऐंड मिलटरी गजट की स्थापना हुई। ये सभी अंग्रेजी दैनिक ब्रिटिश शासनकाल में जारी रहे। 
टाइम्स आफ इंडिया ने प्रायः ब्रिटिश सरकार की नीतियों का समर्थन किया। पायोनियर ने भूस्वामी और महाजनी तत्वों का पक्ष तो मद्रास मेल यूरोपीय वाणिज्य समुदाय का पक्षधर था। स्टेटसमैन ने सरकार और भारतीय राष्ट्रवादियों दोनों का ही आलोचना की थी। सिविल एण्ड मिलिटरी गजट ब्रिटिश दाकियानूसी विचारों का पत्र था। स्टेटसमैन, टाइम्स आफ इंडिया, सिविल एंड मिलिटरी गजट, पायनियर और मद्रास मेल जैसे प्रसिद्ध पत्र अंग्रेजी सरकार और शासन की नीतियों एवं कार्यक्रम का समर्थन करते थे।
अमृत बाजार पत्रिका, बांबे क्रानिकल, बांबे सेंटिनल, हिन्दुस्तान टाइम्स, हिन्दुस्तान स्टैंडर्ड, फ्री प्रेस जनरल, नेशनल हेराल्ड व नेशनल काल अंग्रेजी में छपने वाले लक्ष्य प्रतिष्ठित राष्ट्रवादी दैनिक और साप्ताहिक पत्र थे। हिन्दू लीडर, इंडियन सोशल रिफार्मर व माडर्न रिव्यू उदारपंथी राष्ट्रीयता की भावना को अभिव्यक्ति देते थे।

इंडियन नेशनल कांग्रेस की नीतियों और कार्यक्रमों को राष्ट्रीय पत्रों ने पूर्ण और उदारपंथी पत्रों ने आलोचनात्मक समर्थन दिया था। डान मुस्लिम लीग के विचारों का पोषक था। देश के विद्यार्थी संगठनों के अपने पत्र थे जैसे स्टूडेंट और साथी। भारत के राष्ट्रीय नेता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने 1874 में बंगाली ( अंग्रेजी ) पत्र का प्रकाशन व संपादन किया। इसमें छपे एक लेख के लिये उन पर न्यायालय की अवज्ञा का अभियोग लगाया गया था। उन्हें दो महीने के कारावास की सजा मिली थी। बंगाली ने भारतीय राजनीतिक विचारधारा के उदारवादी दल के विचारों का प्रचार किया था। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की राय पर दयाल सिंह मजीठिया ने 1877 में लाहौर में अंग्रेजी दैनिक ट्रिब्यून की स्थापना की। पंजाब की उदारवादी राष्ट्रीय विचारधारा का यह प्रभावशाली पत्र था।
लार्ड लिटन के प्रशासनकाल में कुछ सरकारी कामों के चलते जनता की भावनाओं को चोट पहुंची, जिससे राजनीतिक असंतोष बढ़ा और अखबारों की संख्या में वृद्धि हुई। 1878 में मद्रास में वीर राधवाचारी और अन्य देशभक्त भारतीयों ने अंग्रेजी सप्ताहिक हिन्दू की स्थापना की। 1889 से यह दैनिक हुआ। हिन्दू का दृष्टिकोण उदारवादी था। लेकिन इसने इंडियन नेशनल कांग्रेस की राजनीति की आलोचना के साथ ही उसका समर्थन भी किया। राष्ट्रीय चेतना का समाज सुधार के क्षेत्र में भी प्रसार हुआ। बंबई  में 1890 में इंडियन सोशल रिफार्मर अंग्रेजी साप्ताहिक की स्थापना हुई। समाज सुधार ही इसका मुख्य लक्ष्य था।
1899 में सच्चिदानंद सिन्हा ने अंग्रेजी मासिक हिन्दुस्तान रिव्यू की स्थापना की। इस पत्र का राजनैतिक और वैचारिक दृष्टिकोण उदारवादी था।

1900 के बाद

1900 में जी ए नटेशन ने मद्रास से इंडियन रिव्यू का और 1907 में कलकत्ता से रामानन्द चटर्जी ने मॉडर्न रिव्यू का प्रकाशन शुरू किया।
मॉडर्न रिव्यू देश का सबसे अधिक विख्यात अंग्रेजी मासिक सिद्ध हुआ। इसमें सामाजिक राजनीतिक ऐतिहासिक और वैज्ञानिक विषयों पर लेख निकलते थे और अंतराष्ट्रीय घटनाओं के विषय में भी काम की खबरें होती थी। इसने इंडियन नेशनल कांग्रेस में प्रायः दक्षिणपंथियों का समर्थन किया।
1913 में बी जी हार्नीमन के संपादकत्व में फिरोजशाह मेहता ने बांबे क्रानिकल निकाला।
1918 में सर्वेंटस आफ इंडिया सोसाइटी ने श्रीनिवास शास्त्री के संपादकत्व में अपना मुखपत्र सर्वेंट आफ इंडिया निकालना शुरू किया। इसने उदारवादी राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देश की समस्याओं का विश्लेषण और समाधान प्रस्तुत किया। 1939 में इसका प्रकाशन बंद हो गया।
1919 में गांधी ने यंग इंडिया का संपादन किया और इसके माध्यम से अपने राजनीतिक दर्शन कार्यक्रम और नीतियों का प्रचार किया। 1933 के बाद उन्होंने हरिजन ( बहुत सी भाषाओं में प्रकाशित साप्ताहिक ) का भी प्रकाशन शुरू किया।
पंडित मोतीलाल नेहरू ने 1919 में इलाहाबाद से इंडीपेंडेंट ( अंग्रेजी दैनिक ) का प्रकाशन शुरू किया।
स्वराज पार्टी के नेता ने दल के कार्यक्रम के प्रचार के लिये 1922 में दिल्ली में के एम पन्नीकर के संपादकत्व में हिन्दुस्तान टाइम्स ( अंग्रेजी दैनिक ) का प्रकाशन शुरू किया। इसी काल में लाला लाजपत राय के फलस्वरूप लाहौर से अंग्रेजी राष्ट्रवादी दैनिक प्यूपल का प्रकाशन शुरू किया गया।

1923 के बाद धीरे  - धीरे समाजवादी, साम्यवादी विचार भारत में फैलने लगे। वर्कर्स एंड प्लेसंट पार्टी आफ इंडिया का एक मुखपत्र मराठी साप्ताहिक क्रांति था। मर्ट कांसपीरेसी केस के एम जी देसाई और लेस्टर हचिंसन के संपादकत्व में क्रमशः स्पार्क और न्यू स्पार्क ( अंग्रेजी साप्ताहिक ) प्रकाशित हुआ। मार्क्सवाद का प्रचार करना और राष्ट्रीय स्वतंत्रता एवं किसानों मजदूरों के स्वतंत्र राजनीतिक आर्थिक संघर्षों को समर्थन प्रदान करना इनका उद्देश्य था।
1930 और 1939 के बीच मजदूरों किसानों के आंदोलनों का विस्तार हुआ और उनकी ताकत बढ़ी। कांग्रेस के नौजवानों के बीच समाजवादी साम्यवादी विचार विकसित हुए। इस तरह स्थापित कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने आधिकारिक पत्र के रूप में कांग्रेस सोशलिस्ट का प्रकाशन किया।
कम्युनिस्ट के प्रमुख पत्र नेश्नल फ्रंट और बाद में प्युपलस् वार थे। ये दोनों अंग्रेजी सप्ताहिक पत्र थे।
एम एन रॉय के विचार अधिकारिक साम्यवाद से भिन्न थे। उन्होंने अपना अलग दल कायम किया जिसका मुखपत्र था इंडीपेंडेंट इंडिया।

राजा राममोहन राय

राजा राममोहन राय ने सन् 1821 में बंगाली पत्र संवाद कौमुदी को कलकत्ता से प्रकाशित किया। 1822 में फारसी भाषा का पत्र मिरात उल अखबार और अंग्रेजी भाषा में ब्रेहेनिकल मैगजीन निकाला।
राजा राममोहन राय ने अंग्रेजी में बंगला हेराल्ड निकाला। कलकत्ता से 1829 में बंगदूत प्रकाशित किया जो बंगला फारसी हिन्दी अंग्रेजी भाषाओं में छपता था।
संवाद कौमुदी और मिरात उल अखबार भारत में स्पष्ट प्रगतिशील राष्ट्रीय और जनतांत्रिक प्रवृति के सबसे पहले प्रकाशन थे। ये समाज सुधार के प्रचार और धार्मिक-दार्शनिक समस्याओं पर आलोचनात्मक वाद-विवाद के मुख्य पत्र थे।
राजा राममोहन राय की इन सभी पत्रों के प्रकाशन के पीछे मूल भावना यह थी ... मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि जनता के सामने ऐसे बौध्दिक निबंध उपस्थित करूं जो उनके अनुभव को बढ़ावें और सामाजिक प्रगति में सहायक सिध्द हो। मैं अपनी शक्ति भर शासकों को उनकी प्रजा की परिस्थितियों का सही परिचय देना चाहता हूं और प्रजा को उनके शासकों द्वारा स्थापित विधि व्यवस्था से परिचित कराना चाहता हूं ताकि जनता को शासन अधिकाधिक सुविधा दे सके। जनता उन उपायो से अवगत हो सके जिनके द्वारा शासकों से सुरक्षा पायी जा सके और अपनी उचित मांगें पूरी करायी जा सके।
दिसंबर 1823 में राजा राममोहन राय ने लार्ड एमहस्ट को पत्र लिखकर अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार हेतु व्यवस्था करने का अनुरोध किया ताकि अंग्रेजी को अपनाकर भारतवासी विश्व की गतिविधियों से अवगत हो सके और मुक्ति का महत्व समझे।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक

विष्णु शास्त्री चिपलणकर और लोकमान्य तिलक ने मिलकर 1 जनवरी 1881 से मराठी में केसरी और अंग्रेजी में मराठा साप्ताहिक पत्र निकाले।
तिलक और उनके साथियों ने पत्र दृ प्रकाशन की उदघोषणा में कहा - हमारा दृढ़ निश्चय है कि हम हर विषय पर निष्पक्ष ढंग से तथा हमारे दृष्टिकोण से जो सत्य होगा उसका विवेचन करेंगे। निःसंदेह आज भारत में ब्रिटिश शान में चाटुकारिता की प्रवृति बढ़ रही है। सभी ईमानदार लोग यह स्वीकार करेंगे कि यह प्रवृति अवांछनीय तथा जनता के हितों के विरूद्ध है। इस प्रस्तावित समाचारपत्र (केसरी) में जो लेख छपेंगे वे इनके नाम के ही अनुरूप होंगे।
केसरी और मराठा ने महाराष्ट्र में जनचेतना फैलाई तथा राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में स्वर्णिम योगदान दिया। उन्होंने भारतीय जनता को दीन दृ हीन व दब्बू पक्ष की प्रवृति से उठ कर साहसी निडर व देश के प्रति समर्पित होने का पाठ पढ़ाया। बस एक ही बात उभर कर आती थी -स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।
सन् 1896 में भारी आकाल पड़ा जिसमें हजारों लोगों की मौत हुई। बंबई में इसी समय प्लेग की महामारी फैली। अंग्रज सरकार ने स्थिति संभालने के लिये सेना बुलायी। सेना घर दृ घर तलाशी लेना शुरू कर दिया जिससे जनता में क्रोध पैदा हो गया। तिलक ने इस मनमाने व्यवहार व लापरवाही से          क्षुब्ध होकर केसरी के माध्यम से सरकार की कड़ी आलोचना की। केसरी में उनके लिखे लेख के कारण उन्हें 18 महीने कारावास की सजा दी गयी।

महात्मा गांधी

गांधीजी ने 4 जून 1903 में इंडियन ओपिनियन साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन किया। जिसके एक ही अंक से अंग्रेजी हिन्दी तमिल गुजराती भाषा में छः कॉलम प्रकाशित होते थे। उस समय गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में रहते थे।
अंग्रेजी में यंग इंडिया और जुलाई 1919 से हिन्दी - गुजराती में नवजीवन का प्रकाशन आरंभ किया।
इन पत्रों के माध्यम से अपने विचारों को जनमानस तक पहुंचाया। उनके व्यक्तित्व ने जनता पर जादू सा कर दिया था। उनकी आवाज पर लोग मर - मिटने को तैयार हो गये।
इन पत्रों में प्रति सप्ताह महात्मा गांधी के विचार प्रकाशित होते थे। ब्रिटिश शासन द्वारा पारित कानूनों के कारण जनमत के अभाव में ये पत्र बंद हो गये। बाद में उन्होंने अंग्रेजी में हरिजन और हिन्दी में हरिजन सेवक तथा गुजराती में हरिबन्धु का प्रकाशन किया तथा ये पत्र स्वतंत्रता तक छापते रहे।

अमृत बाजार पत्रिका

सन् 1868 में बंगाल के छोटे से गांव अमृत बाजार से हेमेन्द्र कुमार घोष, शिशिर कुमार घोष और मोतीलाल घोष के संयुक्त प्रयास से एक बांगला साप्ताहिक पत्र अमृत बाजार पत्रिका शुरू हुआ। बाद में कलकत्ता से यह बांगला और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में छपने लगी।
1878 के वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट से बचने के लिये इसे पूर्णतः अंग्रेजी साप्ताहिक बना दिया गया। सन् 1891 में अंग्रेजी दैनिक के रूप में इसका प्रकाशन शुरु हुआ।
अमृत बाजार पत्रिका ने तगड़े राष्ट्रीय विचारों का प्रचार किया और यह अत्याधिक लोकप्रिय राष्ट्रवादी पत्र रहा है। सरकारी नीतियों की कटू आलोचना के कारण इस पत्र का दमन भी हुआ। इसके कई संपादकों को जेल की भी सजा भुगतनी पड़ी।
जब ब्रिटिश सरकार ने धोखे से कश्मीर मे राजा प्रताप सिंह को गद्दी से हटा दिया और कश्मीर को अपने कब्जे में लेना चाहा तो इस पत्रिका ने इतना तीव्र विरोध किया कि सरकार को राजा प्रताप सिंह को राज्य लौटाना पड़ा।

पयामे आजादी

स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रणी नेता अजीमुल्ला खां ने 8 फरवरी 1857 को दिल्ली से पयामे आजादी पत्र प्रारंभ किया। शोले की तरह अपनी प्रखर व तेजस्वनी वाणी से जनता में स्वतंत्रता की भावना भर दी। अल्पकाल तक जीवित रहे इस पत्र से घबराकर ब्रिटिश सरकार ने इसे बंद कराने में कोई कसर नही छोड़ी।
पयामे आजादी पत्र से अंग्रेज सरकार इतनी आतंकित हुई कि जिस किसी के पास भी इस पत्र की कॉपी पायी जाती उसे गद्दार और विद्रोही समझ कर गोली से उड़ा दिया गया। अन्य को सरकारी यातनायें झेलनी पड़ती थी। इसकी प्रतियां जब्त कर ली गयी फिर भी इसने जन दृ जागृति फैलाना जारी रखा।

युगांतर

जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी ने लिखा है - जहां तक क्रांतिकारी आंदोलन का संबंध है भारत का क्रांतिकारी आंदोलन बंदूक और बम के साथ नही समाचारपत्रों से शुरु हुआ।
वारिन्द्र घोष का पत्र युगांतर वास्तव में युगान्तरकारी पत्र था। कोई जान नही पाता था कि इस पत्र का संपादक कौन है। अनेक व्यक्तियों ने ससमय अपने आपको पत्र का संपादक घोषित किया और जेल गये। दमनकारी कानून बनाकर पत्र को बंद किया गया।
चीफ जस्टिस सर लारेंस जैनिकसन ने इस पत्र की विचारधारा के बारे में लिखा था- इसकी हर एक पंक्ति से अंग्रेजों के विरुध्द द्वेष टपकता है। प्रत्येक शब्द में क्रांति के लिये उत्तेजना झलकती है।
युगांतर के एक अंक में तो बम कैसे बनाया जाता है यह भी बताया गया था। सन् 1909 में इसका जो अंतिम अंक प्रकाशित हुआ उस पर इसका मुल्य था- फिरंगदि कांचा माथा ( फिरंगी का तुरंत कटा हुआ सिर )

एक से अधिक भाषा वाले भाषाई पत्र

हिन्दु मुसलमान दोनों सांप्रदायिकता के खतरे को समझते थे। उन्हें पता था कि साम्प्रदायिकता साम्राज्यवादियों का एक कारगर हथियार है। पत्रकारिता के माध्यम से सामप्रदायिक वैमनस्य के खिलाफ लड़ाई तेज की गयी थी। भाषाई पृथकतावाद के खतरे को देखते हुए एक से अधिक भाषाओं में पत्र निकाले जाते थे। जिसमें द्विभाषी पत्रों की संख्या अधिक थी।

हिन्दी और उर्दू पत्र

मजहरुल सरुर, भरतपुर 1850, पयामे आजादी, दिल्ली 1857, ज्ञान प्रदायिनी, लाहौर 1866, जबलपुर समाचार, प्रयाग 1868, सरिश्ते तालीम, लखनऊ 1883, रादपूताना गजट, अजमेर 1884, बुंदेलखंड अखबार, ललितपुर 1870, सर्वाहित कारक, आगरा 1865, खैर ख्वाहे हिन्द, मिर्जापुर 1865, जगत समाचार, प्रयाग 1868, जगत आशना, आगरा 1873, हिन्दुस्तानी, लखनऊ 1883, परचा धर्मसभा, फर्रुखाबाद 1889, समाचार सुधा वर्षण, हिन्दी और बांगला, कलकत्ता 1854, हिन्दी प्रकाश, हिन्दी उर्दू गुरुमुखी, अमृतसर 1873, मर्यादा परिपाटी समाचार, संस्कृत हिन्दी, आगरा 1873
1846 में कलकत्ता से प्रकाशित इंडियन सन् भी हिन्दु हेरोल्ड की भांति पांच भाषाओं हिन्दी फारसी अंग्रेजी बांगला और उर्दू में निकलता था।
1870 में नागपुर से हिन्दी उर्दू मराठी में नागपुर गजट प्रकाशित होता था।
बंगदूत बांगला फारसी हिन्दी अंग्रेजी भाषओं में छपता था।

गुजराती
  • बंबई में देशी प्रेस के प्रणेता फरदून जी मर्जबान 1822 में गुजराती में बांबे समाचार शुरु किया जो आज भी दैनिक पत्र के रुप में निकलता है।
  • 1851 में बंबई में गुजराती के दो और पत्रों रस्त गोफ्तार और अखबारे सौदागर की स्थापना हुई। दादाभाई नौरोजी ने रस्त गोफ्तार का संपादन किया। यह गुजराती भाषा का प्रभावशाली पत्र था।
  • 1831 में बंबई से पी एम मोतीबाला ने गुजराती पत्र जामे जमशेद शुरु किया
मराठी


  • सूर्याजी कृष्णजी के संपादन में 1840 में मराठी का पहला पत्र मुंबई समाचार शुरु हुआ।
  • 1842 में कृष्णजी तिम्बकजी रानाडे ने पूना से ज्ञान प्रकाश पत्र प्रकाशित किया।
  • 1879 दृ 80 में बुरहारनपुर से मराठी साप्ताहिक पत्र सुबोध सिंधु का प्रकाशन लक्ष्मण अनन्त प्रयागी द्वारा होता था।
  • मध्य भारत में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का विकास मराठी पत्रों के सहारे ही हुआ था।
हिन्दी पत्रकारिता
हिन्दी पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी है। हिन्दी पत्रकारिता के आदि उन्नायक जातीय चेतना, युगबोध और अपने महत् दायित्व के प्रति पूर्ण सचेत थे। कदाचित् इसलिए विदेशी सरकार की दमन-नीति का उन्हें शिकार होना पड़ा था, उसके नृशंस व्यवहार की यातना झेलनी पड़ी थी। उन्नीसवीं शताब्दी में हिन्दी गद्य-निर्माण की चेष्ठा और हिन्दी-प्रचार आन्दोलन अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में भयंकर कठिनाइयों का सामना करते हुए भी कितना तेज और पुष्ट था इसका साक्ष्य ‘भारतमित्र’ (सन् 1878 ई, में) ‘सार सुधानिधि’ (सन् 1879 ई.) और ‘उचितवक्ता’ (सन् 1880 ई.) के जीर्ण पृष्ठों पर मुखर है। हिन्दी पत्रकारिता में अंग्रेजी पत्रकारिता के दबदबे को खत्म कर दिया है। पहले देश-विदेश में अंग्रेजी पत्रकारिता का दबदबा था लेकिन आज हिन्दी भाषा का परचम चंहुदिश फैल रहा है।

हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ
हिन्दी के साप्ताहिक पत्रों में साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्म-युग, दिनमान, रविवार एवं सहारा समय प्रमुख हैं। हिन्दुस्तान का सम्पादन, सम्पादिका मृणाल पाण्डेय जी ने किया एवं धर्मयुग का सर्वप्रथम सम्पादन डॉ. धर्मवीर भारती जी ने किया। धर्मयुग ने जन सामान्य में अपनी लोकप्रियता इतनी बना रखी थी कि हर प्रबुद्ध पाठक वर्ग के ड्राइंग रूप में इसका पाया जाना गर्व की बात माने जाने लगी थी। कुछ दिनों तक गणेश मंत्री (बम्बई) ने भी इसका सम्पादन किया। कुछ आर्थिक एवं आपसी कमियों के अभाव के कारण इसका सम्पादन कार्य रूक गया। दिनमान´ का सम्पादन घनश्याम पंकज जी कर रहे थे साथ ही रविवार का सम्पादन उदय शर्मा के निर्देशन में आकर्षक ढंग से हो रहा था। इसी समय व्यंग्य के क्षेत्र में 'हिन्दी शंकर्स वीकली´ का सम्पादन हो रहा था। 'वामा´ हिन्दी की मासिक पत्रिका महिलापयोगी का सम्पादन विमला पाटिल के निर्देशन में हो रहा था। इण्डिया टुडे´ पहले पाक्षिक थी, परन्तु आज यही साप्ताहिक रूप में अपनी ख्याति बनाये हुये है। अन्य मासिक पत्रिकाओं में 'कल्पना´, 'अजन्ता´, 'पराग´, 'नन्दन´, 'स्पतुनिक´, 'माध्यम´, 'यूनेस्को दूत´, 'नवनीत (डाइजेस्ट)´, 'ज्ञानोदय´, 'कादम्बिनी´, 'अछूते´, 'सन्दर्भ´, 'आखिर क्यों´, 'यूथ इण्डिया´, 'जन सम्मान´, 'अम्बेडकर इन इण्डिया´, 'राष्ट्रभाषा-विवरण पत्रिका´, 'पर्यावरण´, 'डाइजेस्ट आखिर कब तक?´, 'वार्तावाहक´ आदि अनेक महत्वपूर्ण पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है।